आज यादों का बक्सा खुला है। बचपन निकला है। कुछ पुरानी किताबें, पंचतंत्र, और चाचा चौधरी। मेरी छोटी सी गुड़िया, रंगीन धागे, प्यारे से बटन, छोटे भाई के तमगे। घिसी हुई लूडो और फोटो रील की डब्बी में गीटियाँ। याद है वो कितने जूनून से खेलता था? और हारने पे तिनक के बैठ जाता था। तब देखकर गुस्सा आता था, आज सोचकर हँसी आती है। हाय, प्यारा से बच्चा। अरे! ये छोटी सी डिबिया में क्या है? प्लास्टिक के नन्हे सितारे जो मैं कॉपियों में चिपकाया करती थी। और एक मोती जैसा दिल वाला लॉकेट जो मुझे पार्क से घर के रस्ते में गिरा हुआ मिला था। उफ़ वो दिन! माँ सब्ज़ी लेने गयी थी और चाबी मेरे पास थी। कूदते फाँदते घर आते चाबी कहाँ गिरी मुझे पता ही नहीं चला। उस रात दरवाज़े के चबूतरे पर हमने ताला तोड़ने के इंतज़ार में दो घंटे काटे थे। पर मज़ा आया था। पड़ोस के बच्चे और आंटियाँ आ गयीं थीं, खूब गप्पे और पकड़म पकड़ाई का सिलसिला चला था।
एक छोटा सा दस्ताना भी है जो दादी ने मेरे लिए बुना था। उसे छूते ही जैसे मैं पानीपत वाले घर पहुँच गयी। सर्दियों की साँस, मुलायम धूप, और छत पे मूँगफलियाँ। दादी संतरे भी छील के देती थी। मैं और मेरी कज़िन छत पे स्टैपू खेलते और दादा के स्कूल से आयी किताबों में कहानियाँ पढ़ते। ताऊजी कितने मज़े कराते थे। शाम में सब बाजार जाके गोल गप्पे और रबड़ी-फालूदा खाते थे। कितना प्यार करते थे।
एक दिया है जो मैंने पेंट किया था। दिवाली पे मम्मी क्या कमाल के गुलाब जामुन बनाती थी और पूजा में पापा हम सब बच्चों के साथ पीछे बैठ के शरारत करते थे। खैर…अब ना दादा दादी हैं, ना बचपन है। पर आज दिवाली तो है। पूजा में दादी वाला जयकारा लगेगा। गुलाब जामुन भी बनेंगे, शरारत भी होगी। यार-दोस्त आएंगे, किस्से ठहाके लगेंगे। नयी रस्में, नयी यादें। यादों का बक्सा जब दुबारा खुलेगा, तब इन यादों को देखेंगे।
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